रविवार, 18 सितंबर 2011

सफर में


                                                                            फोटो : राजेश उत्‍साही 
जाते हुए
रोज के सफर पर, अक्‍सर
हम ढूंढते हैं ऐसी जगह
जहां बैठी हो कोई सुंदर स्‍त्री

किसी भी तरह
प्रयत्‍न करते हैं
उसके सामने बैठने
या खड़े होने का
ताकि निहार पाएं उसे
सेंक पाएं अपनी आंखें

थोड़ी ही देर में
शुरू होता है मानसिक मैथुन
रेंगना शुरू कर देते हैं
उसकी देह पर

खो जाते हैं
एक कल्‍पनातीत संसर्ग में
काटकर उसे
उसकी दुनिया से ले आना
चाहते हैं अपने साथ

संभव है
वह मां हो दो प्‍यारे-प्‍यारे
बच्‍चों की
हमसे कहीं अधिक
सुंदर मनोहर जीवन साथी हो
उसका
करता हो उसे स्‍नेह बेशुमार
तमाम परिजनों से भरा-पूरा
परिवार हो उसका

या कि यातना
भोग रही हो अपने जीवन में
रोज तिल-तिल मरकर

हमें
इससे क्‍या
हम तो भोगना चाहते हैं
उसे पल दो पल
बनाना चाहते हैं
सपनों की साम्राज्ञी
न्‍यौछावर करना चाहते हैं
अपना जीवन
या कि हवस?
0 राजेश उत्‍साही

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